Wednesday, September 18, 2019

हरियाणा चुनाव से बेरोजगारी का मुद्दा गायब है...


हरियाणा में चुनावी माहौल है, राष्ट्रीय स्तर की कोई भी पार्टी बोरोजगारी को लेकर बात नहीं कर रही है और नहीं करना चाहती है। बेरोजगारी पर अब टीवी से चर्चा और परिचर्चा का दौर गायब हो चुका है। ऐसे में हरियाणा लोकहित पार्टी ने आज भी बेरोजगारी के मुद्दे को जिंदा रखते हुए रोजगार देने का आश्वासन दे रही है।
 हलोपा के अध्यक्ष गोपाल कांडा ने रोजगारी को भी इस बार मुद्दा बनाया है रोजगार सृजन , कौशल विकास सहित अन्य मुद्दे को उठा रही है। रोजगार देने के वादा कर रही है, अगर सत्ता का सुख पार्टी भोगती है, तो रोजगार का स्वाद भी युवा जरूर चखेंगे।
45 साल में बेरोज़गारी सबसे अधिक है। 31 मई को आई आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो गई है। 2017 जुलाई से लेकर 2018 जून तक की अवधि में बेरोज़गारी हर स्तर पर बढ़ी हुई देखी गई। चुनाव के कारण सरकार ने इसे जारी नहीं किया था। तरह-तरह के विवादों से इसे संदिग्ध बना दिया। कभी कहा गया कि यह झूठ है और कभी कहा गया कि इसका पैमाना सही नहीं है। ख़ैर यह रिपोर्ट आ जाती तब भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता लेकिन जनता तक यह आंकड़ा न पहुंचे इसके लिए रिपोर्ट को जारी न होने दिया गया। इसके विरोध में राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग के दो सदस्यों ने इस्तीफा भी दे दिया। तब भी सरकार टस से मस नहीं हुई। सरकार बनने के बाद इस रिपोर्ट को जारी कर दिया गया। बेरोज़गारी की दर 45 साल में सबसे अधिक है।

2019 चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उसने बेरोज़गारी के मुद्दे को ख़त्म कर दिया। अब इस मुद्दे की राजनीतिक साख नहीं बची। बेरोज़गारों ने भी आगे आकर कहा कि बेरोज़गारी मुद्दा नहीं है। राष्ट्रवाद मुद्दा है। इसलिए अब जब यह रिपोर्ट आई है कि बेरोज़गारी अपने उच्चतम स्तर पर है इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। न सरकार को, न बेरोज़गार को। कोई भी संवेदनशील सरकार ज़रुर इन आंकड़ों से चिन्तित होगी, लेकिन वह इस दबाव में नहीं आएगी कि रोज़गार का सवाल उसके लिए राजनीतिक ख़तरा पैदा कर सकता है। पहले के चुनावों में भी बेरोज़गारी के बाद भी राजनीतिक दलों ने जीत हासिल की है लेकिन इस बार जब बेरोज़गारी रिकार्ड स्तर पर थी तब कहा जा रहा था कि इससे व्यवस्था पर दबाव बनेगा और सत्ताधारी दल बीजेपी मुश्किल में आ सकती है। मगर बेरोज़गारों ने अपनी बेरोज़गारी के सवाल को रिजेक्ट करते हुए बीजेपी को बल दिया है।

इस मायने में बीजेपी की कामयाबी कई मायनों में राजनीतिक रूप से श्रेष्ठ है। किसी बेरोज़गार में अपने प्रति विश्वास पैदा करना और बनाए रखना साधारण बात नहीं है। बीजेपी को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए। जो वर्ग आपके ख़िलाफ़ हो सकता था वही आपका समर्थक बन जाए तो बीजेपी और उसके नेतृत्व प्रधानमंत्री मोदी की क्षमता को समझना चाहिए। कांग्रेस का यकीन ग़लत निकला कि बेरोज़गारी का मुद्दा उसे राजनीतिक कामयाबी दे सकता है। राहुल गांधी ने एक साल में 4 लाख केंद्र की नौकरियां भरने का वादा किया वह भी बेरोज़गारों ने रिजेक्ट कर दिया। बेरोज़गारों को भी श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रवाद का साथ दिया। अपने पेट के सवालों का नहीं। यह बहुत बड़ी बात है। कोई एक दिन अपनी नौकरी दांव पर नहीं लगा सकता, बेरोज़गारों ने अपना भविष्य दांव पर लगा दिया।
 फिर भी बेरोज़गारों को किसानों से सीखना चाहिए। व्यापारियों से भी सीखना चाहिए। साठ साल के व्यापारियों के लिए 3000 पेंशन की व्यवस्था बनी है। ऐसा दावे से नहीं कहूंगा कि व्यापारियों ने इसके लिए आंदोलन नहीं किया होगा मगर यह ज़रूर है कि उससे अधिक नौजवानों ने अपनी नौकरी के लिए आंदोलन किया था। हर राज्य में लाठियां खाई थीं। किसानों ने भी राष्ट्रवाद का साथ दिया मगर अपने मुद्दे को नहीं छोड़ा। आंदोलन किया और सरकार पर अंत अंत तक दबाव बनाए रखा। उसका नतीजा सार्थक निकला। मोदी सरकार के पहले ही फैसले में सभी किसानों को 6000 सालाना का पीएम सम्मान मिल गया। 60 साल के किसानों को 3000 मासिक पेंशन भी मिली। बेरोज़गारों को वह रिपोर्ट मिली कि 45 साल में बेरोज़गारी सबसे अधिक है जिसका कोई मतलब नहीं है।


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